बनाली: प्रिय गावँ की माटी-पानी और हमारी जड़ें – मदन मोहन कण्डवाल

बनाली ग्रामसभा, लगभग 60 से 65 परिवार समूहों का गावँ, ऋषिकेश-लक्ष्मणझूला- कांडी-दोगड्डा-कोटद्वार राजमार्ग (अब उत्तराखण्ड और तब उत्तर प्रदेश) पर पूर्व-दक्षिण याने कोटद्वार दिशा की ओर जाते हुए कांडाखाल कस्बे से 1.5 से 2 किलोमीटर दांयीं दिशा में शिवालिक पर्वतों की गोद में बसा हुआ है। इसके पड़ोसी गावँ बायीं ओर कांडा, सुंडल, मरख्वल, ओड़ियारी, बड़ेथ और कांडाखाल हैं तो दक्षिण में उरखेल गावँ, उमल्दा, डबराना, घुटटा गावँ और चंडाखाल और पश्चिम/ दक्षिण पश्चिम में कड़ासू, भैड़गावँ, पौखाल बसे हैं। इसी तरह गाँव के पूर्व में हतनूड़, नङ्ढा, झटरी, डाडामण्डी, दुगड्डा, लैंसडाउन आदि लगते हैं।

बनाली गावँ में सूरज का उदय जनवरी, उत्तरायण से पहले जंहाँ गुमखाल, जयहरीखाल, कॉलोडाण्डा (लैंसीडौन) की तरफ से होता है वही उत्तरायण के बाद भैरवगढ़ी, हनुमानगढ़ी, द्वारीखाल, चैलूसैण, सिलोगी की तरफ से होता जाता है। सूरज उदय होते ही जंहाँ तीखी धूप पड़ती है वंहीं सूर्यास्त भी, गाँव के पीछे स्थित घने बांज, चीड़ और बुराँश-काफल से लकदक पहाड़ी- जंगलों के कारण 03:00 से 03:30 बजे तक जल्दी हो जाता है। जो कि बनिस्पत हतनूड़ और आगे के गांवों के सामने कुछ जल्दी होता है। बाकी गावों मे सूर्यप्रकाश अगले दो से तीन घण्टे तक बना रहता है।

गावँ की बाँयीं सीमा रेखा में मलूण धार में खड़े दो हंसते हुए चीड़ वृक्षों की बहुत सालों तक बहुत बड़ी यादगारी भूमिका रही जिनमे एक खुद जर्जर, भूक्षरण और तूफान झेलते-झेलते ढह गया वंहीं दूसरा पड़ोसी गाँव कांडा के लोगों द्वारा उनकी जरूरतों के चलते बीसेक साल पहले काट लिया गया था। इन पेड़ों के साथ गावँ में आने वाले मेहमान, नौकरीपेशा घर के सदस्यों की घर वापसी (नेगीदा के लोकप्रिय गढ़वाली गीत , बरखा झुकि ऐगे के “बौ की नजर धार पोर, स्वामी आणा होला घौर”), बारातों के आगमन को उत्साह और मिलने की खुशी संग फॉलो अप करते रहने की आदत, गावँ के असंख्य आँखो में रची-बसी होती थी और साथ ही गावँ की बेटी की विदाई, बारातों की विदाई या नौकरी जाते सदस्य की विदाई को इन पेड़ों तक गावँ की बुजुर्ग माताएं, बहूओ और छोटी बेटियों द्वारा सिसकते-रोते हुए फॉलो अप किया जाने का उपक्रम भला हम बच्चों से भी कब छुपा रह सकता था?

गावँ के बाएं स्थित मलूण का बरसाती गदेरा और ढ़ण्डियों के साथ छिंछ्वाड़ (झरना) ऊपर स्थित चीड़-काफल के जंगलों का पानी लेकर डरावनी जम्हाई लेते हुए बहता नड़गदनी से होते हुए खोह नदी का हिस्सा बनकर दुगड्डा कोटद्वार जाता है। मलूण के गदेरे की जम्हाई लेने की लोकोक्ति इसके ऊँचाई से पानी गिरने और हवा बहने/न बहने के कारण होने वाली आवाज ही है। जिसे बचपन से हमें ऐंसे ही सुनाया गया। इस मलूण के गदेरे के दांयें बगल मे ही लोळणी का गदेरा जहाँ गाँव की बांयीं सीमा बनाता है, वहीं बीच के दो गदेरों ख्वाब और थोली के गदेरे के बाद और किनारे दायीं ओर स्थित पैर के पानी (पैरिकपाणी नाम लगातार पैर पड़ने से याने उजड़ते रहने से) के गदेरे से गावँ की दायीं सीमा बनती है। आगे बरसाती पिंडकूपाणी (पिंडे का पानी), सदानीरा कसर्या की नाव (या “कुशा-रौ की नाव”, ऊपर और आस-पास कुश घास के बहुतायत मे होने से शायद यह नाम पड़ा होगा), और थोड़ा आगे डुमुक नाव (ऊरखेल गाँव के कारण) भी स्थित है। आगे गावँ की दाईं सीमा में कूटीं का डिंड (टेकरी) , चौराणी, कालोकटर और दौउ, ग्वालीधार, म्वारु का भेल (म्वारूकभेल) आदि आते हैं। जहाँ खूब लिंगड़े/खूंतड़ें और मुंजड़ा होता है। काफल, बुराँश, हिसर, किंगोड़ा, तिमुल, भ्यूंल, खड़ीक, अंयार, तिलफरा, बांज, कुलैं , तून, आंवला, हैड़ा, बएडा, अखरोट, नारंगी, माल्टा, कीनू, नींबू, चकोतरा, आम, आडू, पैंयां आदि वृक्षों की बहुतायत से समृद्ध यह गावँ कप्सूल, चौं, सिंगान और बौज आदि जड़ी-बूटी के लिए भी जाना जाता है। ढाब में पुराने लोग कहते, मिट्टी के तेल की खान हैं शायद। यहां के ऊपरी जंगल में मर्वाड़ी के तप्पड़ (मैदान) से आगे के नदी-नाले गयड्ड नदी होते हुए ह्यूंल म् मिलकर व्यास चट्टी होकर गंगा में मिलते हैं।

मुख्य गावँ तीन स्परों पर ख्वाब- गदेरा और थोली- गदेरा के बीच, बाएं और दाएं बसा हुआ है। गावँ के छानियाँ (गौशालाएं) और पानी के स्रोत भी बाएं, दाएं तथा खेती बाड़ी गावँ के ऊपर मैली सारी (ऊपरी खेत) तथा गावँ के नीचे मुड़ी सारी (निचले खेत) लगभग एक- एक किलोमीटर तक फैले हुए हैं। इनमे से एक सारी ही एक समय फ़सली होती थी तो दूसरी मवेशियों के चरने के काम आती थी। जब चार-एक महीने दोनो सारीयां फसलों से भरी होती थी तो मवेशी दूर ऊपरी या निचले जंगली या दूर खेतों में गोठ में भद्वाड़ (आज की पीढ़ी के लिए बिल्कुल ही विलुप्त शब्द) में होते थे और चुगने को भी गावँ के दाईं तरफ विस्तृत जंगली पहाड़ी भू भाग पर घास चुगते थे।

बरसाती नालों ख्वाब और थोली गदेरे का जल स्रोत बरसात में फूटे छोयें और बरसाती पानी जो खोली, मठेणा, चूपडयूं और कूड़ीकरा से निसृत होकर आता था, ही जल की कल-कल आवाज (गशिंग साउण्ड ऑफ वाटर) का संगीतमय जादू जगाता था। जंहाँ ख्वाब और थोली गदेरे के बीच केवल चार घर बसे हुए हैं, वहीं नौ घर ख्वाब के बांयी तरफ और बाकी सभी घर थोली गदेरे के दाईं तरफ बसे हुए है। जिनमे ज्यादातर पानी के छोयें, सदाबहार जलस्रोत, वन्य -चुगान प्रदेश और गौशालाएं भी शामिल हैं ये घर लगभग 28 या 29 के आसपास होंगे। गावँ का विस्तार सबसे नीचे घर से ऊपर बाएं आखिरी घर तक लगभग एक किलोमीटर लगभग होगा। गावँ की नीचे की सीमा का विस्तार धाराकरल से होते हुए जोगी और डन्गू के चीड़ के पेड़ तक और चौतरिंकरा के बाघ की सदाबहार गुफाओं और दौउ, ग्वालीधार तक है।

गावँ के ऊपर गावँ के साझे जंगल साथ जंगलात के जंगल हैं और गावँ के ऊपर से जिला डाक का आदमी, खच्चरों का कच्चा रास्ता कांडाखाल को चंडाखाल से जोड़ता है। गावँ के मात्र एक परिवार का बहुत बड़ा घर (नाम-डाँड को घर) ऊपर जंगल मे ग्रामदेवता (असल देवता) और छूंती उड़्यार के देवता के नीचे और चौराणी, कालो कटर के ऊपर है। अब घरबूत के मंदिर के अलावा ‘डाकि-ढूंग’ का दुर्गा मंदिर और सबसे नया दुर्गा मंदिर मर्वाड़ी -हिमधार के पास बना है, जंहाँ एक परिवार गावँ से अलग जा बसा है।

राजेन्द्र प्रसाद कण्डवाल (अवकाश प्राप्त शिक्षक, जिन्हे बचपन से ही बड़े-बूढ़ों के पास बैठने का शौक रहता था) बताते हैं कि गाँव मे अष्टकूड़ी का एक विचार था, जिसमे पीपल मे स्थित हमारा मकान, भैरव भाई साहब का मकान, खुशीराम जी का मकान और सच्चिदानंद भाई साहब, अतितानंद ताऊजी, आत्माराम ताऊजी के चार-पांच मकानों के अलावा भी दो- तीन और मकान होते थे। इन मकानों की विशेषताएं , राजमिस्त्रियों के परस्पर जी-जान प्रतिस्पर्धा के चलते आलों, दरवाजों के ऊपर उकेरी पक्षी-जानवरों की नक्काशीदार आकृतियों या आंगन और दोमंजिली छज्जे आदि के कारण अलग-अलग होती थी। बगल के गाँवों डीबा, गरब्या कु कूड़ और उरखेलगावँ के पत्थर तराशने वाले कुशल कारीगरों का बोलबाला रहता था। सभी मकानों की छत और दीवारों मे स्थानीय पत्थर की खानों (कूड़ीकरा, मर्वाड़ी, हिमधार, लोसण, दूजकरा, टांटीकरा और खोली) से लाया पत्थर इस्तेमाल होता था। दरवाजों की लकड़ी गींठी, तुन की तो धुर्पलै और ढै़बार के गोल बलिण्ड या चौकोर कड़ियां चीड़ (कुलैं) की होती थी। कुछेक (छह लगभग) दोमंजिला घरों में तिबारी के होने से महंगी लकड़ी भी इस्तेमाल होती थी, जिसे काला या अन्य रंगों मे रंगा भी जाता था।

स्वर्गीय वासावानन्द त्यागी जी (उपनाम- त्यागी) हमारे गावँ के स्वर्गीय चाचाजी के चचेरे दादाजी थे, जिनका असली नाम वासावानन्द कण्डवाल था और जो स्वतंत्रता संग्राम सैनानी थे। तब की तत्कालीन सरकार ने उन्हें सराहना स्वरूप उन्हें कोटद्वार में शायद चार बीघा लगभग जमीन दी थी (जो अब नगर पालिका के अधीन कोटद्वार बद्रीनाथ रोड पर बुद्दा मूर्ति के साथ, जो सार्वजनिक पार्क बना हुआ है, के आस-पास अवस्थित है)। उनका जन्म, शिक्षा-दीक्षा का इतिहास भी बनाली गावँ से ही जुड़ा हुआ है। यह जानकारी समग्रता से बहुत दूर है और इस पर आगे गहन खोज, अभी भी मेरे हिसाब से जरूरी है। इसके अलावा और भी हस्तियों की बात अगर करें तो आज अभी कुछ ज्यादा संज्ञान मे नही है। क्योंकि कभी संजीदगी से सोचा ही नही गया या कहिये कि पुरानी पीढ़ियों को सोचने की फुरसत ही न मिली हो।

हाँ! अगर 1950 के बाद देखें तो खुद मेरे पिताजी (स्वर्गीय सीताराम कण्डवाल) 4 गढवाल राईफल्स मे रहते हुये लांस हवलदार होते हुये नायक जसवंत के साथ ही 1962 की भारत-चीन, सेला-नूरानांग लडाई मे लड़े थे। ,जहाँ जसवंत सिँह शहादत को प्राप्त हुये, वहीं चीनियों के आगे एडवांस पर नूरानांग पुल को उड़ाने का हुक्म तामील करके उनकी एल्फा या डेल्टा कंपनी को दुबारा संगठित होकर युद्ध करने की खातिर, टैक्टिकल रिट्रीट करने का हुक्म मिला। जिसमें वे सब पैदल ही बिना रसद, गोला-बारूद के हथियार लिये बाया भूटान होते अपरिचित रस्तों पर अप्रत्याशित घात-प्रतिघातों और झड़पों से बचते-बचाते और खुद सुरक्षित रहते 28 दिन बाद चारद्वार,लोखरा (तेजपुर) पहुंचने मे सफल हुये थे। भारत सरकार ने उन्हें “मिसिँग इन एक्शन” घोषित किया था। 1962 चीन युद्ध मे मिसिँग इन एक्शन की बात की तथ्यात्मक जानकारी का भान मुझे बखूबी है। साथ ही वर्ष 1952 से 1972, उनके रिटायरमेंट तक तीन लडाइयों, 62 नेफा चीन,65 खेमकरण पाकिस्तान और 71 बंग्लादेश मे लड़ने की बात भी काबिले गौर है। आज भी कई सैन्यकर्मी हैं जिन्होने कारगिल, ऑपरेशन पवन, श्रीलंका, सी आई, सीटी , एल ए सी, एल सी, आई एस ड्यूटी और आपातकालीन ड्यूटीज के अनुभवों के अलावा सक्रिय युद्ध पूरे कैरियर मे नही देखा और उनके समय मे, दूसरी ओर 20 सालों की सर्विस मे तीन-तीन लडा़ईयां, मानो उनके लिये ही रखी थीं। आज भी उनके मैडल और गढ़वाल राईफल्स का “नूरानांग, बैटल हॉनर” इसकी कहानी कहता है। शायद प्रेमलाल कण्डवाल चाचा जी और कुछ और हमारे गाँव के सैनिक भी इसी तरह के बड़े या छोटे अभियानों के प्रतिभागी रहे होंगे?

इसी तरह.यहाँ, तब के समय मे आर्थिकोपार्जन हेतु हमारे पूर्वजों के करांची प्रवास की बातों का फरमाना भी काबिले गौर रहेगा। गावँ की आर्थिकी कृषि आधारित और मनी आर्डर पद्धति ही रही क्योंकि गावँ के हर घर से कम से कम एक और ज्यादा से ज्यादा तीन सदस्य हर पीढ़ी में फौज, असम राइफल्स, बी एस एफ, एस एस बी, पोलिस आदि में और अन्य टीचिंग लाइन में होते रहे हैं । बाकी कुछ लोग प्राइवेट नौकरियों के चलते देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार, पौड़ी, कर्णप्रयाग, श्रीनगर, नजीबाबाद, दिल्ली, मेरठ, मुम्बई और अन्यत्र पलायन करते रहे हैं।

गावँ की बच्चों की होली मांगती टोली 15 दिनों तक गावँ-गावँ घूमकर अंत मे पूर्णमासी को होलिका दहन कर बड़े लोगों के साथ छरौली ( भीगी होली) खेलती थी। साथ ही दस दिवसीय ड्रामा, घरबूत पूजा, अस्लदेवता मंडाण और व्रत, गेंद का मेला, बगल के गावँ की पाती और रामलीलाएं हमारे मुख्य पर्व और आकर्षण होते थे। साथ ही गोठ और भद्वाड़ भी नई अचंभे भरी जानकारियों के माध्यम थें। यह 1982 था दिल्ली एशियाड, जिसने श्वेत श्याम और बाद में रंगीन टीवी से रूबरू करवाया और कई शरारतों और नई जानकारियों का साधन बना पर साथ ही अपसंस्कृति का कारण भी बना (विशेषकर ड्रामा के संदर्भ में)। बाकी चैती, बादी-बादिनी, अन्य लोकपर्व,लोकभोजों, लोक संस्कारों और लोकगीतों के पलायन में हमारा गावँ भी और गांवों से पीछे नही है।

अब उत्तराखण्ड बनने के बाद गावँ में भी पलायन का असर पड़ा है, परिवारों को अच्छे स्वास्थ्य, शिक्षा और नौकरी -भविष्य की सुनिश्चितता के लिए पलायित होना पड़ा है, जंहाँ पहले गावँ में 500 लगभग लोग होते थे अब मात्र 200 ही होंगे। बंदर-लंगूरों के हमेशा चलते महाप्रकोप के साथ बंजर पड़े खेतों के कारण जंहाँ जंगल गावँ की ओर नीचे बढ़ने को उद्यत है वंहीं नीचे से कुरील की झाड़ी में जंगली, पालतू सुअरों का आतंक भी शुरू हो गया है। जंगलों के कारण बाघ, तेंदुआ, रीछ का आतंक मवेशियों और महिलाओं, बच्चों के लिए हमेशा बना रहता आया है। 1978 का मैन ईटर ऑफ़ दुगड्डा बाघ भला कौन भूल सकता है हमारे गावँ में भी, जब शाम 4 बजे से सुबह 8 बजे तक घर मे नजरबंद होना पड़ता था छह महीनों तक। गावँ में 1975 की अतिवृष्टि से हुए पानी और जमीनी हानि के अलावा 1985 में ऊपर कालोकटर- मठेना-मरवाड़ी, टाँटी के भेल-मलूण तक आयी दरार के कारणों से गावँ आज भी भू- क्षरण और अतिवृष्टि के संभावित प्राकृतिक आपदाओं से भयग्रस्त है। गावँ के ऊपरी और निचली सीमा में चक डैम्स की लंबी और लगातार श्रृंखला की जरूरत है।

गावँ अभी भी कांडाखाल से एक पक्की सड़क तो क्या कच्ची सड़क की बाट जोह रहा है। गावँ के प्रधान के प्रभाव के कारण आधे रास्ते मलूण तक एक किलोमीटर एक अधकच्ची सड़क तीन साल से बनी है पर अभी भी वो गावँ की पहुंच से 1 किलोमीटर दूर है। पता नही प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और मेरी सड़क की बातों का समाधान हमारे गावँ के लिए अभी तक क्यो न हो पाया है? अब देखने की गुंजाईश लगती है इस ओर भी। गावँ के बच्चों की बारहवीं तक की शिक्षा के केंद्रों में , दो से सात किलोमीटर दूर के पहाड़ी क्षेत्र में, कक्षा पांच तक पुराने कांडाखाल आधारिक विद्यालय (अब एक किलोमीटर दूर आधारिक विद्यालय बनाली,मलूण), उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सिमगड्डी कांडाखाल और राजकीय इण्टर कॉलिज मटियाली, डाडा मण्डी शामिल हैं। पी एच सी मलूण वर्तमान ग्राम प्रधान के प्रयासों से, अब नया -नया खुला है, पर उद्घघाटन अब भी होना बाकी है।

लेख साभार : मदन मोहन कण्डवाल

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