कुठार यानी अनाज बैंक – गुणानंद जखमोला

– उत्तरकाशी के कवां गांव में है कुठार
– अब गांवों में नजर नहीं आते कुठार
– भूकंप में भी सुरक्षित रहते हैं कुठार
देहरादून से 150 किमी दूर है उत्तरकाशी और उत्तरकाशी से लगभग 15 किमी की दूरी पर स्थित है कवां गांव। इस गांव में 250 परिवार हैं। यह गांव वरुणा घाटी में है और इसके पार यमुना घाटी शुरू हो जाती है। यहां के लोगों की गढ़वाली भाषा में रंवाई यानी जौनसारी का पुट है। इस गांव तक पहुंचने के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत है। गांव तक कच्ची सड़क है जिसपर पत्थर उगे हुए हैं। नीचे गहरी खाई है। आंख हटी, दुर्घटना घटी। इस गांव में कई रोचक बातें हैं, लेकिन अभी मैं सिर्फ इस गांव के एक कुठार की बात बता रहा हूं। पुराने जमाने में अनाज रखने के लिए लोग अपने घर के निकट कुठार बनाते थे। देवदार की लकड़ी से बना कुठार घरनुमा होता है। देवदार की लकड़ी न तो बारिश से खराब होती है और न इस पर कोई कीड़ा लगता है। पुतले या घुन भी नहीं। कुठार में जाने के लिए एक खिड़कीनुमा दरवाजा होता है। अंदर छह खाने बने हुए होते हैं। हर खाने में आठ से दस क्विंटल अनाज स्टोर किया जा सकता है। कुठार के खिड़कीनुमा दरवाजे से एक सांकल यानी लोहे की चेन बंधी होती है, इस चेन का सिरा कुठार मालिक के मकान तक जाता है जिसके कोने पर घंटी बंधी होती थी, यदि कोई अनाज चोर कुठार में घुसने की कोशिश करता तो चेन हिल जाती और घंटी बज जाती; पुराने जमाने में ताले नहीं लगते थे तो चोर को पकड़ने का यही इंतजाम था। 55 वर्षीय बलवीर नैथानी बताते हैं कि यह कुठार उनके दादा ने बनवाया था। पूरे उत्तराखंड में अब कुछ ही कुठार बच गये हैं। नैथानी के अनुसार कुठार भूकंपरोधी भी होते हैं और जब वर्ष 1991 में उत्तरकाशी में भूकंप से भारी विनाश हुआ, उनका घर भी इसमें ढह गया था तो उन्होंने इसी कुठार की शरण ली थी। मैं इस कुठार के अंदर गया और देखा कि देवदार की लकड़ी अब भी बहुत शान से चमक रही है। 100 साल से भी ज्यादा का समय। और अब हमारे यहां देवदार के पेड़ ही नजर आते हैं, आते भी हैं तो कलकत्ता या वन माफिया के हाथों काटे जाते हैं। अब देवदार, बांज, बुरांश की जगह चीड़ ने ले ली है।

लेखक व तस्वीर गुणानंद जखमोला

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