न्यायाधीशो की बजाय देवताओं पर निर्भर रहते है

उत्तराखंड के जिस क्षेत्र जौनसार से मैं ताल्लुक रखता हूँ वहां एक ज़माने में न्याय और स्वास्थ्य के लिए भी लोग न्यायाधीशों और डाक्टरों की बजाय देवताओं पर निर्भर रहते थे। हालाँकि गाँव के पारम्परिक मुखिया न्यायिक मामलों में और जड़ी बूटियों के जानकार स्वास्थ्य के मामलों में थोडा बहुत दखल जरूर रखते थे लेकिन किसी भी फ़साद या हारी बीमारी के जटिल होने पर लोग देवताओं की शरण में ही जाते थे। देवता भी पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ बिना अमीर गरीब का भेदभाव किए इन भोले भाले लोगों की आस्था पर ख़रे उतरते।  पहाड़ के देवी-देवता कभी पशुचारक और किसान के जीवन की सुरक्षा का आश्वासन हुआ करते थे। वे पहाड़ के इन निरीह ग्रामीणों के मन में किसी भी आई गई बला से टकराने की हिम्मत का काम करते थे।

समय बदला। उदारीरकरण के दौर में इस क्षेत्र की भावी पीढ़िया पढ़ लिख कर सरकार और कार्पोरेट की नौकर हो गई। जो ठीक से पढ़ लिख नहीं पाए वो नेता और ठेकेदार हो गए। पहाड़ की भावी पीढ़ियां देश दुनिया में फ़ैलने लगी। ऐसे में कुछ एक पढे लिख़ों के देवता तो वैश्विक हो गए लेकिन बहुत से लोगों ने इन्ही पारम्परिक देवताओं पर अपनी आस्था बनाए रखी। उन्होंने वजीरों, पुजारियों और मालियों (पस्वा) के पाँव छू कर अपने देवताओं से रूपये और रसूख की मनोकामना मांगी। उदारीकरण के दौर में गाँव घर छोड़ कर बाहार निकले इन शिक्षित और अर्द शिक्षित लोगों पर देवताओं की कृपा बरसने लगी और इनकी मनोकामनाएं धड़ाधड़ पूर्ण होने लगी। अफसरों अभियंताओं की तो बात ही छोड़िए, मामूली तनख़्वाह पाने वाले बाबू करोड़ों में खेलने लगे। देवताओं की कृपा के चलते नेताओं और ठेकेदारों का तो कहना ही क्या। देवताओं की कृपा यहीं नहीं रुकी, वे दलालों के भी पूजनीय हो गए। नेताओं और ठेकेदारों की संपति दिन दूनी और रात चौगुनी बढने लगी।

जहाँ अतीत में देवताओं के दायरे सीमित हुआ करते थे वो अब वर्तमान में बढ़ गए। समय की कमी और भक्तों की भीड़ नें देवताओं को भेंट और चढावे के आधार पर लोगों की फ़रियादें सुनने पर मजबूर कर दिया। साल में दो चार बार मन्दिर और शहरों के अपने घरों में सुबह शाम अपने इष्ट को पूजने वालों को देवताओं ने प्राथमिकता देनी शुरु कर दी। वे उनकी रातें पुजवाते हैं। वे उनके वजीरों पुजारियों और मालियों को ख़ुश करते हैं। जबकि एक रात से दूसरी रात तक खेत जंगल में खटने वाले, गाँव में पीछे छूट गए लोगों के पास इतनी फ़ुरसत नहीं होती कि वो सुबह शाम घण्टा भर बैठ कर देवताओं का ध्यान लगाएं। क्योंकि गाँव के इन लोगों को हाड़ तोड़ काम के बाद रोटी कपड़ा और मकान हासिल हो पाता है  लिहाजा अब देवताओं के पास भी इन लोगों के लिए ज्यादा फ़ुर्सत नहीं हो पाती। बस, साल छ महीने के दौरान इन लोगों का हाल जान लिया जाता है।

अभी दो रोज पहले की ही तो बात है। जौनसार बावर की ख़ड़म्बा पर्वत श्रंख़ला के दारागाड़ और बेनाल ख़ड्ड केचमेंट के उपर चुपचाप से बादल आए और फ़ट पड़े। ओलों और पानी के सैलाब नें एक चरवाहे समेत इस क्षेत्र के लोगों के खेत, पशुधन और फ़सलों को तबाह कर दिया। लेकिन अफ़सोस! इस आपदा की यहाँ के देवताओं को कानो कान खबर न हो पायी। होती भी कैसे, उस दिन देहरादून की विधान सभा में फ़्लोर टेस्ट भी तो था।

#सुभाषित


सुभाष त्रेहन

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