इंटरमीडिएट विज्ञान वर्ग से किया और फिर गांव के पास के कालेज में बीए करने लगा। पिताजी को भूगोल में रुचि थी और भौतिक भूगोल का उन्हें अच्छा ज्ञान था। उनसे प्रेरित होकर एक विषय के रूप में भूगोल भी लिया। अब मैं ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में पढ़ने लगा। उन्हीं दिनों की की बात है। एक दिन मैं गांव से कुछ दूर गोर चराने (डंगर चुगाने) गया था। वहीं गांव के एक ताऊजी यानि बोडा जी ने मुझे आवाज लगायी तो मैं उनके पास पहुंचा। उन्होंने पूछा धर्मेंद्र तू कथगम पढि दी (धर्मेंद्र तुम कौन सी कक्षा में पढ़ता है)। मैंने कहा, ”बीए”। उन्होंने फिर पूछा, ”कौन सी कक्षा में मतलब 11, 12 या 13 में।” मैं समझ गया और जवाब दिया, ” 13 म बोडाजी। ” उन्होंने मेरी परीक्षा लेने के उद्देश्य से ही अपने पास बुलाया था। इसलिए तुरंत ही सवाल दाग दिया। ”क्या तुम्हें पता है कि पहाड़ और मैदान कैसे बने?”
मुझे लगा कि वह हिमालय की उत्पत्ति के बारे में पूछना चाहते हैं इसलिए मैंने टैथीस सागर, गोंडवाना लैंड और अंगारालैंड के बारे में विस्तार से बताने लगा तो उन्होंने बीच में ही टोक दिया। बोडा जी ने लंबी सांस लेकर कहा, ”ओहो तुम्हें भी नहीं पता कि पहाड़ कैसे बने? आज मैं तुम्हें बताता हूं। ” बोडा जी ने फिर एक लंबी कहानी सुनाई जिसका सारांश यही था कि ”एक बार श्रीकृष्ण ने भीम को अपना आकार बढ़ाने और रातों रात पूरी पृथ्वी पर हल लगाने का आदेश दिया। सुबह होने से पहले हल लगाना और फिर सुबह तक उसे पाटना (गढ़वाली में कहूं तो जोळ लगाना)। भीम ने सुबह होने से पहले तक हल लगा दिया जब वह जोळ लगा रहे थे तभी सुबह हो गयी। जहां जोळ लगा वहां मैदान बन गये और जहां बचा रह गया वहां पहाड़। ” मैं तब केवल मुस्करा दिया था।
मैंने अपनी जिंदगी के पहले 20 साल पहाड़ों में स्थित अपने गांव में बिताये। मेरे पास गांव की जिंदगी ऐसी खट्टी मीठी ढेरों यादें हैं जिनको याद करके मैं आज भी पुलकित हो जाता हूं। इसके बाद गांव छूटा और पहाड़ भी। गांव से दूर जाकर शहरी हो गया और इस तरह से मैंने अपनी भावी पीढ़ी को गांव, उसकी माटी और यादों से वंचित कर दिया। कभी मनन करो तो लगता है कि मेरे जैसे गांव छोड़ने वालों ने जितना हासिल किया है, उससे अधिक गंवाया है।
—-धर्मेंद्र पंत