जवानों की मौत का आडिट क्यों नहीं होता?

सेना और अर्द्धसैनिक बलों
के जवानों की मौत का आडिट क्यों नहीं होता?
– स्नाइपर्स लोकेशन आॅर्गनाइजर्स और अच्छे बुलेटप्रुफ
इक्युपमेंट क्योें नहीं दिये जाते हैं जवानों को
– जवानों की सुरक्षा या सेना कभी नहीं बनी चुनावी मुद्दा
गत दिनों दून के एक नामी स्कूल का वार्षिकोत्सव था। सीएम त्रिवेंद्र वहां पहुंचे। उनके पहुंचने से पहले ही वहां सुरक्षा के तमाम इंतजाम किये गये थे। यहां तक कि स्कूल की छत में भी सुरक्षाकर्मी तैनात थे। जहां हमले की कोई उम्मीद नहीं, वहां सुरक्षा का इतना तगड़ा इंतजाम। लेकिन जो हर पल मौत के साये में रहते हैं, उनकी सुरक्षा का क्या? यह फर्क है नेता और जवान की जान का। सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों की सुरक्षा कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं रही। सेना और अर्द्धसैनिक बल न सिर्फ सीमाओं की रक्षा करते हैं बल्कि आपदा और आपातकाल में जनता के लिए देवदूत भी बन जाते हैं। लेकिन नेताओं और जनता को उनकी कोई फिक्र नहीं होती है। तभी तो जवान मरते हैं तो शहीद कहकर या कैंडल जलाकर उन्हें श्रद्धांजलि देकर इतिश्री कर देते हैं। सैनिकों की मौत का आज तक आडिट नहीं हुआ। न ही ऐसा कोई सर्वे कि आखिर एंबुस या आतंकी हमले में जवानों की मौत कहां और कैसे हुई, न इसका जिक्र होता है। जैसे कि जवान को गोली सिर पर लगी या गले पर, या छाती पर। न ही इस बात की जांच होती है कि बुलेट प्रुफ्र जैकेट के होते हुए गोली जवान के सीने में कैसे घुस गयी। बुलेट प्रुफ्र हेलमेट या नीक गार्ड था या नहीं। आदि आदि। आतंकी व नक्सली हमले से बचने के लिए सेना के पास न तो अच्छे स्नाइपर्स लोकेशन आर्गनाजर्स हैं और न ही अच्छे किस्म के जैमर। ले. जनरल सेनि. एमएम लखेड़ा से इस संबंध में मेरी बात हुई तो उन्होंने भी माना कि सेना के पास उपकरण अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं। अच्छे बुलेट प्रुफ वाहन और इक्युपमेंट काफी महंगे हैं। ये उपकरण कनाडा व जर्मनी में बनते हैं। महंगे हैं लेकिन सैनिक वेबजह ऐसे हमलों में जान नहीं गंवाते। इराक युद्ध के दौरान व बाद में अमरीकी सैनिक इसी तरह के उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे अहम बात यह है कि सरकार जब जवान के मरने के बाद उसके आश्रितों को मुआवजे के रूप में भारी भरकम रकम देती है तो उस रकम को जवान पर जीते जी क्यों नहीं खर्च किया जाता? क्यों नहीं उसे सुरक्षा उपकरण दिये जाते। जवान अनुशासित होते हैं, वो ये मुद्दा नहीं उठा सकते। बीएसएफ के जवान तेज बहादुर का हाल सबको पता है। जब खाने की क्वालिटी पर बबाल हो गया तो उपकरणों के सवाल पर तो तूफान आएगा। बेहतर है कि जवानों की जान बचाने के लिए सिविलियन यानी जनता आगे आए। संस्थाएं आगे आएं और विभिन्न मंचों पर इस बात को उठाएं। नहीं तो सुकुमा हो या कश्मीर हालात एक से हैं और जब तक जवानों को अच्छे किस्म के लाइफसेविंग इक्युपमेंट नहीं दिये जाते हैं तब तक जवानों का बेवजह यूं ही जान गंवाने का क्रम जारी रहेगा।

Written by Gunanand Jakhmola

Previous articleकोटद्वार में सिर्फ शराब के ठेके का विरोध, बार का क्यो नही? ये है कारण
Next articleहल्द्वानी से बेरीनाग जा रही मैक्स खाई में गिरी, 3 की मौत 7 घायल