नई दिल्ली।
भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इतिहास में 21 दिसंबर 2025 एक बड़े बदलाव के दिन के रूप में दर्ज हो गया है। राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) अधिनियम, 2025’ यानी VB-G RAM G (जी राम जी) अब आधिकारिक रूप से देश का नया कानून बन चुका है। इसके साथ ही करीब 20 साल पुराने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) का मौजूदा स्वरूप समाप्त हो गया है।
सरकार का दावा है कि नया कानून ग्रामीण भारत में रोजगार, आजीविका और टिकाऊ अवसंरचना निर्माण को एक नई दिशा देगा। वहीं विपक्ष और विशेषज्ञ इसे राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता पर सीधा हमला और गरीब मजदूरों की रोजगार सुरक्षा को कमजोर करने वाला कदम बता रहे हैं।
यह बदलाव केवल नाम का नहीं है, बल्कि रोजगार गारंटी के पूरे दर्शन को बदल देता है। जहां मनरेगा एक मांग-आधारित अधिकार था, वहीं ‘जी राम जी’ को बजट-सीमित अवसंरचना मिशन के रूप में लागू किया गया है।
125 दिन की गारंटी, लेकिन शर्तों के साथ
पुराना प्रावधान (MGNREGA, 2005):
मनरेगा के तहत हर ग्रामीण परिवार को 100 दिन के रोजगार की कानूनी गारंटी दी गई थी। यह योजना पूरी तरह डिमांड ड्रिवन थी। यानी मजदूर काम मांगता था और सरकार को हर हाल में काम उपलब्ध कराना होता था।
नया प्रावधान (VB-G RAM G, 2025):
नए कानून में रोजगार की वैधानिक गारंटी बढ़ाकर 125 दिन कर दी गई है। हालांकि, अब यह गारंटी केंद्र सरकार द्वारा तय ‘नॉर्मेटिव एलोकेशन’ पर आधारित होगी। इसका मतलब है कि मजदूरों को उतना ही काम मिलेगा, जितना पहले से तय बजट में शामिल है। मांग बढ़ने पर काम मिलना अब अधिकार नहीं, बल्कि बजट पर निर्भर होगा।
राज्यों पर क्यों बढ़ा सबसे बड़ा बोझ?
नए कानून का सबसे विवादास्पद पहलू मजदूरी भुगतान का नया फॉर्मूला है।
पहले:
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अकुशल मजदूरी का 100% भुगतान केंद्र सरकार करती थी।
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राज्यों पर मजदूरी का कोई सीधा बोझ नहीं था।
अब:
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मजदूरी का 60% केंद्र और 40% राज्य सरकार वहन करेंगी।
अनुमान के अनुसार, इस योजना की सालाना लागत करीब ₹1.51 लाख करोड़ होगी। इसमें से राज्यों को अब हर साल ₹55,000 करोड़ से अधिक की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होगी। यह रकम पहले राज्यों को नहीं देनी पड़ती थी, जिससे कई गरीब और कृषि-प्रधान राज्यों पर गंभीर दबाव पड़ने की आशंका है।
संकट के समय कौन देगा अतिरिक्त पैसा?
पुराना मनरेगा मॉडल:
मनरेगा ओपन-एंडेड फंडिंग पर आधारित थी। सूखा, बाढ़ या आर्थिक संकट के समय अगर काम की मांग बढ़ती थी, तो केंद्र सरकार को अतिरिक्त बजट देना कानूनी रूप से अनिवार्य था।
नया मॉडल:
अब वित्तीय सीमा पहले से तय होगी। यदि किसी राज्य में मांग, केंद्र द्वारा निर्धारित आवंटन से ज्यादा हो जाती है, तो उस अतिरिक्त खर्च का 100% भुगतान राज्य सरकार को खुद करना होगा। केंद्र सरकार अतिरिक्त राशि जारी नहीं करेगी।
साल भर काम नहीं, 60 दिन का अनिवार्य ब्रेक
नए कानून में एक और बड़ा बदलाव ‘अनिवार्य विराम’ का प्रावधान है।
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कटाई और बुवाई के पीक सीजन में 60 दिनों तक ग्रामीण रोजगार कार्य रोक दिए जाएंगे।
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सरकार का तर्क है कि इससे खेती के मौसम में किसानों को मजदूरों की कमी नहीं होगी।
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आलोचकों का कहना है कि इससे भूमिहीन मजदूरों की आय सुरक्षा कमजोर हो जाएगी, क्योंकि यही समय उनकी सबसे ज्यादा जरूरत का होता है।
गांव के काम का फैसला अब किसके हाथ में?
पहले:
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ग्राम सभा सर्वोच्च प्राधिकरण थी।
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गांव के लोग तय करते थे कि तालाब बनेगा या सड़क।
अब:
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ग्राम पंचायतें प्रस्ताव तो बनाएंगी, लेकिन उन्हें ‘विकसित भारत राष्ट्रीय ग्रामीण अवसंरचना स्टैक’ के अनुरूप होना अनिवार्य होगा।
यह स्टैक चार प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित होगा—
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जल सुरक्षा
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कोर इंफ्रास्ट्रक्चर
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आजीविका
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जलवायु परिवर्तन
साथ ही सभी कार्यों को पीएम गति शक्ति GIS प्लेटफॉर्म से जोड़ना अनिवार्य किया गया है।
डिजिटल सिस्टम अनिवार्य, ग्रामीण मजदूरों की चिंता
नए कानून में पारदर्शिता के नाम पर डिजिटलीकरण को पूरी तरह अनिवार्य कर दिया गया है।
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हाजिरी के लिए बायोमेट्रिक सिस्टम और AI आधारित सत्यापन जरूरी होगा।
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कमजोर इंटरनेट और नेटवर्क वाले इलाकों में यह व्यवस्था मजदूरों के लिए नई बाधा बन सकती है।
जहां तकनीक को भ्रष्टाचार रोकने का माध्यम बताया जा रहा है, वहीं विशेषज्ञ इसे डिजिटल बहिष्करण का खतरा भी मान रहे हैं।
बेरोजगारी भत्ता: राज्यों पर ‘दोहरी मार’
पुराना नियम:
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15 दिन में काम न मिलने पर राज्य सरकार बेरोजगारी भत्ता देती थी।
नया नियम:
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भत्ता देने की जिम्मेदारी राज्यों की ही रहेगी।
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लेकिन अब उन्हें काम मिलने पर भी 40% मजदूरी और काम न मिलने पर भत्ता—दोनों का खर्च उठाना होगा।
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यानी, काम हो या न हो, राज्यों का खर्च तय है।
सरकार बनाम विपक्ष: आमने-सामने
सरकार का तर्क:
सरकार का कहना है कि मनरेगा सिर्फ “गड्ढे खोदने और भरने” तक सीमित रह गई थी और भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी थी। नया ‘जी राम जी’ कानून टिकाऊ संपत्तियों के निर्माण पर जोर देगा, जो विकसित भारत की नींव बनेगा।
विपक्ष और विशेषज्ञों की आपत्ति:
विपक्ष ने इसे संघीय ढांचे पर हमला करार दिया है। महात्मा गांधी का नाम हटना भले ही प्रतीकात्मक मुद्दा हो, लेकिन असली चिंता गरीब राज्यों पर डाले गए 40% मजदूरी बोझ को लेकर है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसे मांग-आधारित से आवंटन-आधारित बनाकर रोजगार गारंटी की आत्मा को कमजोर कर दिया गया है।
निष्कर्ष
‘जी राम जी’ कानून ग्रामीण भारत में एक बड़े संरचनात्मक बदलाव का संकेत देता है। यह वित्तीय अनुशासन और अवसंरचना निर्माण पर जोर देता है, लेकिन इसके साथ ही राज्यों की आर्थिक स्वतंत्रता और मजदूरों के काम मांगने के अधिकार पर सवाल भी खड़े करता है। आने वाले समय में यह कानून केंद्र-राज्य संबंधों में टकराव का बड़ा कारण बन सकता है।



